:-आत्मनिर्भरता की ओर इसरो, स्वयं बना रहा है ECLSS :-

        



पृथ्वी का वायुमंडल सभी जीवों को प्राकृतिक रूप से “ जीवन रक्षा प्रणाली” की सुविधा उपलब्ध करवाता है जिसके अंतर्गत वह पीने के लिए पानी, श्वसन क्रिया के लिए आक्सीजन सहित समस्त उपापचयी क्रियाओं के लिए आवश्यक घटकों की व्यवस्था करता है लेकिन जब बात मानव को अंतरिक्ष में भेजने की आती है तब सबसे बड़ी चुनौती उस मनुष्य के जीवन की रक्षा हेतु आवश्यक “एनवायर्नमेंट कंट्रोल एवं लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम”(ECLSS) को लेकर होती है, क्योंकि पृथ्वी के वातावरण के बाहर अंतरिक्ष में यह सुविधा प्राकृतिक रूप में उपलब्ध नही होती है , ऐसी परिस्थिति में अंतरिक्ष यात्रियों के जीवन की सुरक्षा को सुनिश्चित करने तथा उनकी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कृत्रिम रूप से “पर्यावरण नियंत्रण एवं जीवन समर्थन प्रणाली “ को निर्मित किया जाता है लेकिन यह एक बहुत ही जटिल प्रणाली है , जिसको एक लम्बे अनुसंधान एवं परीक्षण के पश्चात बनाया जाता है इसकी जटिलता का अंदाजा केवल इसी बात से लगाया जा सकता है कि अभी तक यह जीवन समर्थन प्रणाली सिर्फ़ अमेरिका, रुस व चीन जैसे चुनिंदा देशों तक ही सीमित हैं 


 हम सभी जानते हैं कि भारत वर्ष 2025 में अपने बहुप्रतिक्षित “ गगनयान” मिशन के अंतर्गत अपने तीन ऐस्ट्रॉनोट्स को पृथ्वी से 400 किमी.की ऊँचाई पर स्थित अंतरिक्ष की कक्षा में भेजने जा रहा है और फिर उन्हें सुरक्षित वापिस पृथ्वी पर भी लाना है इस हेतु भारतीय अंतरिक्ष एजेन्सी इसरो इस मिशन से जुड़े प्रमोचन यान LVM-3,क्रू एस्केप सिस्टम, तथा ऑर्बिटर मॉडयूल ( जिसमें क्रू मॉडयूल ओर सर्विस मॉडयूल सम्मिलित है) के लगातार सफल परीक्षणो को संचालित करने में लगा है ताकि “ गगनयान” मिशन को सफलतापूर्वक पूर्ण किया जा सके, वहीं दूसरी ओर इस मिशन का एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष ईसीएलएसएस को लेकर इसरो आशान्वित था, कि यह प्रौद्योगिकी हम अमेरिका अथवा रूस से प्राप्त कर लेंगे , लेकिन इसरो की तैयारियों को उस समय बड़ा झटका लगा , जब इन देशों ने भारत को यह तकनीक साझा करने से इंकार कर दिया । ऐसे में इस मिशन से जुड़े यात्रियों को सुरक्षित अंतरिक्ष में ले जाने व पुनः धरती तक लाने के लिए उनके क्रू मॉडयूल में लगने वाली इस ECLSS तंत्र को अब इसरो को स्वयं ही निर्मित करनी पड़ रही है।

कुछ समय पूर्व  गोवा में आयोजित एक कार्यक्रम में स्वयं इसरो चीफ़ एस. सोमनाथ ने इस मिशन से जुड़ी चुनौतियों पर चर्चा करते हुए इस बात को स्वीकार किया कि इस प्रकार की प्रणाली को विकसित करने में अभी तक हमारा कोई अनुभव नहीं है ,हमारी विशेषज्ञता रॉकेट एवं उपग्रह निर्माण की रही है ,लेकिन अब हम जल्द ही इसके बारे में अभी तक प्राप्त ज्ञान के आधार पर स्वयं ही भारत में निर्मित करेंगे।
अभी तक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर निर्मित समस्त “पर्यावरण नियंत्रण एवं जीवन समर्थन प्रणाली” को तीन भागों में वर्गीकृत किया जा  सकता है ,जिनमे अंतरिक्ष यात्रियों व अंतरिक्ष स्टेशनो में निवास करने वाले शोधकर्ताओं को आक्सीजन व जल की व्यवस्था के साथ कार्बन डाई ऑक्साइड का निस्तारण,ताप एवं दाब नियंत्रण व रेडिएशन से बचाव की क्षमता पाई जाती  है।

इसमें प्रथम प्रकार के ECLSS वजन में बहुत हल्के,आकार में छोटें व अल्पावधि हेतु उपयुक्त होते हैं जो वहनीय होने के कारण यात्रियों के स्पेस शूट में लगाए जाते हैं यह प्रणाली मुख्यतः उन अंतरिक्ष यात्रियों के लिए उपयोगी है जो अपने स्पेसक्राफ़्ट से बाहर निकलकर अंतरिक्ष में या चन्द्रमा की सतह पर भ्रमण करते हैं।
द्वितीय प्रकार के ECLSS मुख्यतः क्रू मॉडयूल या स्पेसक्राफ़्ट के अंदर ही यात्रियों को सतत पर्यावरणीय सुविधा देने हेतु बनाए जाते हैं, यह तंत्र पोर्टेबल ECLSS की तुलना में अपेक्षाकृत जटिल  व अधिक अवधि हेतु उपयोगी है ,क्योंकि क्रू मॉडयूल में बैठकर ही अंतरिक्ष यात्री ,अंतरिक्ष में जाते हैं और पुनः धरती तक का सफर तय करते हैं ।भारत को अभी गगनयान मिशन के लिए इसी प्रकार के ECLSS प्रणाली की ज़रूरत है इस प्रणाली के  अंतर्गत पानी एवं आक्सीजन में से किसी एक को धरती से साथ ले जाना पड़ता है जबकि दूसरे को उसी से बनाया जाता है ,सामान्यतया इस तंत्र में मानव ठोस अपशिष्ट व युरिन को प्रॉसेस करके जल में पुनः परिवर्तन करने के बजाय उन्हें एकत्रित करके बाहर फेंक दिया जाता है । नासा के अपोलो अभियान व स्पेसएक्स के ड्रैगन कैप्सूल में लगे “ पर्यावरण नियंत्रण व जीवन समर्थन प्रणाली” इसी के उदाहरण है।
जबकि तृतीय प्रकार के ECLSS बहुत भारी,बड़े व जटिल यांत्रिकी वाले होते हैं जो कि मुख्यतः स्पेस स्टेशन हेतु बनाएँ जाते हैं, जहाँ यात्री लम्बे समय तक रूककर ज़ीरो ग्रेविटी में शोध कार्य करते हैं।इस प्रकार के ECLSS में पानी व आक्सीजन दोनो को ही इसी में उत्पादित किया जाता है इस हेतु अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा उपयोग किए गये कुल जल के 90 प्रतिशत भाग को पुनः चक्रण से वापिस प्राप्त कर लिया जाता है इसके लिए यात्रियों के युरिन, पसीने इत्यादि को आसवन विधि से जलवाष्प में बदलकर फिर उसे फ़िल्टर करके पुनः जल में परिवर्तित किया जाता है ,तत्पश्चात इसी जल के विधुत अपघटन से आक्सीजन व हाइड्रोजन प्राप्त की जाती है जहाँ ओक्सीजन श्वसन हेतु प्रयुक्त होती है वहीं हाइड्रोजन को श्वसन में छोड़ी जाने वाली कार्बन डाई आक्साइड गैस के साथ सबेटीयर अभिक्रिया द्वारा जल व मिथेन में बदला जाता है इस प्रक्रिया में शेष बचे कार्बन डाई आक्साइड व मिथेन को छोड़ दिया जाता है । नासा के मार्शल स्पेस फ़्लाइट सेंटर ह्युस्टन के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन के लिए निर्मित ECLSS इसी का उदाहरण है । भारत भी 2035 तक अपना खुद का अंतरिक्ष स्टेशन बनाने के लिए प्रतिबद्ध है ऐसे में भारत को भी भविष्य में अपने अंतरिक्ष स्टेशन के लिए ऐसी ही प्रणाली विकसित करनी होगी ।यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि अभी इसरो गगनयान के लिए जो जीवन समर्थन प्रणाली तैयार कर रहा है, उसी तकनीक को सँवर्धित करकें अपेक्षाकृत अधिक जटिल ECLSS को बना सकेगा ,जो अंतरिक्ष स्टेशन हेतु उपयोगी हो।
इस प्रकार की तकनीक के विकसित किए जाने से भारत न केवल गगनयान मिशन को सफलतापूर्वक लाँच कर पाएगा ,बल्कि अंतरिक्ष में भविष्य के मानव मिशनो हेतु एक मील का पत्थर साबित होगा ।इससे हमारी आत्मनिर्भरता बढ़ेगी व इसरो की साख में अभूतपूर्व वृद्धि होगी ।गौरतलब है कि हाल ही में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने भारत के आगामी अंतरिक्ष कार्यक्रम को घोषित किया है , जिसके अनुसार 2035 तक भारत अपना अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित करेगा और 2040 तक चन्द्रमा की सतह पर मानव उतारेगा ।ऐसे में “पर्यावरण नियंत्रण व जीवन समर्थन प्रणाली “पर हमारी आत्मनिर्भरता से इन मिशनो को समयबद्ध रूप से पूर्ण करने में सहायता मिलेगी।
यहाँ इस बात का भी उल्लेख करना ज़रूरी है ,कि केवल इस बात के आधार पर कि  रूस व अमेरिका ने भारत को यह प्रौद्योगिकी साझा नहीं की ,उनके साथ हमारी विदेशनीति निर्धारण का एक मानक नहीं हो सकता, क्योंकि यह दोनो ही देश अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ अंतरिक्ष क्षेत्र में भी लम्बे समय से हमारे सहयोगी रहे हैं ,रूस ही वह देश है जो गगनयान हेतु हमारे अंतरिक्ष यात्रियों को प्रशिक्षित कर रहा है वहीं दूसरी तरफ नासा के साथ साझेदारी में इसरो निसार मिशन  को अंतरिक्ष में भेजने जा रहा है ।ऐसे में कहा जा सकता है ,कि यह तकनीक ही कूटनीतिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण होने के कारण कोई भी देश इसे साझा करने से बचेगा ।और हमारे लिए भी भलाई इसी बात में है कि हम स्वयं ही इस तकनीक को विकसित करके आत्मनिर्भर बने ।हम सभी को पूर्ण विश्वास है कि जल्द ही इसरो हमेशा की तरह हम सभी भारतीयों को एक बार फिर  गौरवान्वित होने का अवसर प्रदान करेगा।
                                                                                                                         :-लेखक-माँगी लाल विश्नोई:-

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